जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
|
6 पाठकों को प्रिय 419 पाठक हैं |
औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
एकाकी जीवन
सभी के दो-एक आत्मीय, घर गृहस्थी, घर वापसी आदि
कुछ न कुछ होते ही हैं।
सिर्फ मेरा ही नहीं है कुछ, नहीं है कोई
केवल मेरे ही सूखकर दरार पड़े दिल में
पड़ी रहती है वेशर्म खाली गगरी।
सभी में जल रहता है, दल रहता है, रहता है फूल-फूल
मेरा ही कुछ नहीं है सम्पूर्ण जीवन में
निःसंग प्रवास के अलावा।
चारों तरफ हज़ारों लोग! लेकिन सच यही है कि मैं अकेली हूँ! यूँ कमरे में अकेले पड़े रहने से ही आदमी अकेला नहीं होता, लेकिन मैं निपट अकेली हूँ।
मेरे यार-दोस्तों का कहना, “तुम जो जंग कर रही हो, उसे जारी रखने के लिए अकेली ही हो जाना पड़ता है।"
अस्तु अकेलापन मेरा रोज-रोज का संगी हो. यही स्वाभाविक है। वहरहाल जो भी शख्स, चाहे जो करे, मैं किसी भी शर्त पर, किसी भी तरह से, अकेलेपन का मज़ा नहीं ले पाती। अकेलेपन के अहसास के बारे में, मेरे मन में कहीं, कोई अहंकार नहीं है।
मेरे देश से अब, कोई फोन नहीं आता। सिर्फ मैं ही फोन करती रहती हूँ। जो लोग मेरे दोस्त थे, वे लोग एक बार भी मेरी खोज-खवर लेने की जिम्मेदारी ही नहीं निभाते कि मेरी खोज-खबर लें। मैं कैसी हूँ, खैरियत से हूँ या नहीं, यह जानने को भी मेरा दिल नहीं चाहता। अच्छा, प्यार अचानक ख़त्म कैसे हो जाता है? ख़त्म हो गया या वैसा कुछ कभी था ही नहीं? जब मैं वहाँ थी, तब थी! अव नहीं हूँ, तो नहीं हूँ। उन लोगों का हिसाब-किताब क्या इसी किस्म का था? मेरे होने-न-होने की वजह से वहाँ किसी को, कोई फ़र्क नहीं पड़ता, लेकिन मेरा हिसाब तो उन लोगों जैसा नहीं है।
'अवकाश' में मैं बार-बार फोन करती हूँ। अब्बू मेरे बारे में दुनिया भर की खोज-खबर लेते हैं, लेकिन मेरा हाल पूछने के लिए खुद तो कभी फोन नहीं करते।
|
- जंजीर
- दूरदीपवासिनी
- खुली चिट्टी
- दुनिया के सफ़र पर
- भूमध्य सागर के तट पर
- दाह...
- देह-रक्षा
- एकाकी जीवन
- निर्वासित नारी की कविता
- मैं सकुशल नहीं हूँ